



सदियों से जंगलों व सड़को में ही जीवन बिता रहे हैं गुज्जर समुदाय के सैंकडों परिवार
मैदानी क्षेत्रो से पहाडी क्षेत्रो व पहाड़ी क्षेत्रो से मैदानी क्षेत्रो की और आने जाने मे लग जाता है दो दो महीने का समय
समाचार दृष्टि ब्यूरो/राजगढ़
आधुनिक प्रौद्योगिकी के इस दौर में बेशक हम चांद पर घर बनाने का सपना पूरा करने की योजना बना रहे है। मगर समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने प्रदेश में ही दो गज जमीन व सिर पर छत के लिए भी मोहताज है। ऐसी ही कहानी घुंमतू गुज्जर समुदाय की भी है, जो आज के आधुनिक समय मे भी लगभग खानाबदोश जैसा जीवन जीने को मजबूर है। आधुनिकता की चकाचौंध से कोसों दूर अपने मवेशियों के साथ जंगल-जंगल घूम कर मस्ती से जीवन यापन करने वाले गुज्जर समुदाय के लोग इन दिनों मैदानी इलाकों से गिरीपार पहाड़ी क्षेत्रों के छः माह के प्रवास पर पंहुचने आंरभ हो गये हैं।
गिरिपार क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले उपमंडल संगड़ाह, राजगढ़ व शिलाई के पहाड़ी जंगलों में सदियों से गर्मियों के मौसम में उक्त समुदाय के लोग अपनी भैंस, गाय, बकरी व भार वाहक बैल आदि मवेशियों के साथ गर्मियां बिताने पहुंचते हैं। सितंबर अक्तूबर माह में गिरिपार में ठंड अथवा ऊपरी हिस्सों मे हिमपात शुरू होने पर यह लौट जाते हैं तथा गंतव्य तक पहुंचने में इन्हे एक से दो माह का समय लग जाता है। इस बारे में हमने इनके डेरे पर जाकर मंदार व इब्राहिम से इनके जीवन यापन व मुश्किलो के बारे में बातचीत की तो इन लोगो का कहना था कि एक दिन मे समुदाय अपने मवेशियों के साथ लगभग 20 से 25 कि मी का सफर कर सकते है। इनके मवेशियों के सड़क से निकलने के दौरान वाहन चालकों को कईं बार जाम की समस्या से जूझना पड़ता है।
यहां गौर की बात यह है कि सिरमौरी साहित्यकारों व इतिहासकारों के अनुसार सिरमौरी गुज्जर छठी शताब्दी में मध्य एशिया से आई हूण जनजाति के वंशज बताये जा रहे है। इन दौनो का कहना था कि इस समुदाय का सौशल मिडिया, मीडिया, सियासत, औपचारिक शिक्षा, इंटरनेट व एंड्रॉयड फोन आदि से नाता नहीं है। हालांकि नई पीढ़ी के कुछ लोग धीरे-धीरे आधुनिक परिस्थितियों के मुताबिक खुद को बदल रहे हैं। पिछले कुछ अरसे से अब गुज्जर समुदाय के कुछ लोग केवल बातचीत करने के लिए मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने लगे हैं तथा इनके कुछ बच्चे स्कूल भी जाने लगे हैं।
गुज्जर समुदाय के अधिकतर परिवारों के पास कहीं पर भी अपनी जमीन अथवा घर नहीं है। हालांकि कुछ परिवारों को सरकार द्वारा पट्टे पर जमीन उपलब्ध करवाई गई है। काफी परिवार नौकरी, व्यवसाय व खेती का धंधा कर अपने लिए घर व जमीन की व्यवस्था कर चुके हैं और अभी भी लगभग तीन चार सो डेरे यानि गुज्जर परिवारो को जमीन नहीं मिल पाई है।
सूत्रों के अनुसार इनकी जनसंख्या महज दो हजार के करीब बताई जाती है। गुज्जर समुदाय के लोग अब अपने मवेशियों का दूध तथा इससे बनाने वाला खोया तथा घी आदि बेच कर अपना जीवन यापन करते हैं। मगर इनका कहना है कि जब ये लोग मैदानी क्षेत्रों से पहाड़ी क्षेत्रों की और चलते हैं तो फिर दुध खोया आदि भी नहीं बिक पाता। जंगलों में खुले आसमान के नीचे परिवार के साथ जिंदगी बिताने के दौरान न केवल इन लोगों को प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है, बल्कि जंगलों में जंगली जानवरों का भी डर रहता है।
गौर करने की बात यह है कि बीमार पड़ने पर ये लोग पारंपरिक यानि जंगलों में ही पाई जाने वाली जड़ी बुटियो का प्रयोग कर उपचार करते हैं। जिला के पांवटा-दून, नाहन व पच्छाद के घिन्नीघाड़ आदि मैदानी क्षेत्रों से चूड़धार क्षेत्र अथवा गिरिपार के जंगलों तक पहुंचने में उन्हें करीब एक से दो महीने का वक्त लग जाता है।
आपको बता दें कि पहाड़ों का ग्रीष्मकालीन प्रवास पूरा होने के बाद उक्त घुमंतू समुदाय अपने मवेशियों के साथ मैदानी इलाकों के अगले छह माह के प्रवास पर निकल जाएगा और इसी तरह इनका पूरा जीवन बीत जाता है।
कुछ क्षेत्रो मे इस समुदाय के बच्चो के लिए सरकार द्वारा अस्थाई स्कुलो की व्यवस्था भी की गई है। अब इस समुदाय के लोगो का कहना है कि इस समुदाय की दर्जनो पीढीयां इस तरह घूम घूम कर बीत गई है। इस समुदाय के लोगो ने सरकार से मांग की है कि अब उन्हे कही एक स्थान पर भूमि उपलब्ध कराई जाये जहां वे अपने मवेशियों के साथ आराम से अपना जीवन बसर कर सके और उनको सरकार की और से मिलने वाली सुविधाओं का भी लाभ मिल सके।