
देवता भूर्शिंग महादेव देवस्थली पजेली से कथाड़ कवागधार भुरेश्वर मंदिर तक शोभा यात्रा में सैकड़ो श्रद्धालुओं ने लिया भाग
एक कोस की चढ़ाई चढ़ते हुए 7 चिन्हित स्थानों पर दूध की चढ़ती हैं धार, मोड़ में पहुंचते ही प्राचीन शिला पर चढ़ती है 8 वीं दूध की धार
समाचार दृष्टि ब्यूरो / सिरमौर
पच्छाद उपमंडल के आराध्य देव भूर्शिंग देवता देव ग्यास को होने वाला देव उत्सव अपने आप में गहरा इतिहास समेटे हुए है। शनिवार को भूर्शिंग महादेव देवस्थली पजेली से कथाड़ कवागधार भुरेश्वर मंदिर तक शोभा यात्रा में सैकड़ो श्रद्धालुओं ने भाग लिया। यहां होने वाली देव परंपराएं अलग तो हैं ही, साथ ही वे किसी चमत्कार से भी कम नहीं हैं। यहां की विशेषता यह है कि देवता पालकी में नहीं चलते, बल्कि सीधे देवशक्ति पुजारी में प्रवेश करती है ओर वह अपने पारंपरिक श्रृंगार से सुसज्जित होकर साक्षात देवता रूप में पैदल मन्दिर पहुंचते हैं।

किविन्दित है कि पर्वत शिखर भुरेश्वर मंदिर स्थल पर बैठकर भगवान शिव व मां पार्वती ने महाभारत का युद्ध देखा था।
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बता दें कि यह देवयात्रा अढ़ाई किलोमीटर यानी एक कोस चढ़ाई का सफर कर मन्दिर (मोड़) में पूरी होती है। स्वयंभू शिवलिंग से सुसज्जित इस मंदिर के इतिहास को लेकर 16वीं व 17वीं शताब्दी से इसका उल्लेख भी है। इसकी अपनी देव परंपराएं हैं, जो ग्यास पर्व पर देखने को मिलती हैं। देवता के श्रृंगार व साज सज्जा का भी अपना अलग ही महत्व है। देवस्थली पूजारली (पजेली) में देवता का श्रृंगार कर अपना विशेष बाणा (पारंपरिक पौशाक) धारण करते हैं। इस दौरन उन्हें वह पगडी पहनाई जाती है, जिसमें देवता का छत्र जड़ा होता है। इस छत्र को मन्दिर या मोड़ पर पहुंचकर पगड़ी से उतारने के साथ ही स्वयंभू शिवलिंग-पिंडी पर सजा दिया जाता है।
ग्यास पर्व पर होने वाले इस विशेष देव उत्सव में शामिल होने के लिए दूर दूर से श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं। देवता वाद्य यंत्रों की धुनों के बीच एक कोस की चढ़ाई चढ़ते हुए 7 चिन्हित स्थानों पर दूध की धार चढ़ाते हैं और मोड़ में पहुंचते ही 8वीं धार शिला पर चढ़ाते हैं। इसके बाद ही देवता मन्दिर में प्रवेश करते है। जहां एक विशेष परंपरा के अनुसार 22 उप गौत्रों द्वारा आगे की रस्में शुरू होती हैं।
मन्दिर में देवता की पगड़ी के अंदर जडे छत्र को शिवलिंग-पिंडी पर सजा दिया जाता है। मुख्य कारदार (पोलिया) इन रस्मों को पूरा करवाते हैं। जिसमें चांवरथीया उपगौत्र-खेल के कारदार देवता को शक्ति परीक्षण के लिए जलती हुई बत्ती देते हैं, जिसे देवता मुंह में लेते हैं। कारदार अपने कुल देवता के ऊपर चांवर झुलाता है, इसीलिए इनकी उपगौत्र का नाम चांवरथिया पड़ा।
भुरेश्वर महादेव मंदिर में है स्वयंभू शिवलिंग

देवभूमि हिमाचल में देवी देवता, श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र हैं। ऐसा ही एक पवित्र स्थान भूर्शिंग महादेव मंदिर कथाड़ (क्वागधार) है। जहां पर स्वयंभू शिवलिंग की उत्पत्ति कालांतर से मानी जाती है। विश्वनाथ व केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिंगों व भू लिंगों के इतिहास में यहां स्थित स्वयम्भू लिंग कालांतर में भूरीश्रृंग, जो दुग्धाहारी भूर्शिंग के नाम से विख्यात हुआ, वह आज भी शिवलिंग शिला के रूप में विराजमान है। हालाँकि इस बार भक्तों के सहयोग से मंदिर कमेटी द्वारा इस शिवलिंग को चांदी से मढ़ दिया है जो कि ओर भी शौभायमान हो गया है ।
देवता तिरछी शिला पर लगाते हैं छलांग

भूर्शिंग महादेव की देव परंपरा भी एकदम निराली है, गोपनीय शाबरी मंत्र व पारंपरिक धूप दीप से पूजा के चलते देवता रात्रि के घुप अंधेरे व कंपकपाती ठंड के बीच एक विचित्र चमत्कार करते हैं। देवता एक ऐसी शिला पर न केवल छलांग लगाते हैं, बल्कि करवटें भी बदलते हैं। जो पहाड़ में तिरछी लटकी है।
हर वर्ष दिपावली के बाद ग्यास को यहां देव उत्सव मनाया जाता है। हजारों श्रद्धालु अपने आराध्य देव के दर्शनार्थ मन्दिर में पहुंचते हैं, जो कच्चा दूध चढ़ाकर उन्हें प्रसन्न करते हैं। भूर्शिंग महादेव का देव उत्सव दीपावली के साथ ही शुरू हो जाता है। देव कार के तहत जगह जगह जागरण व करियाला, जबकि दशमी व ग्यास को मन्दिर में मेले का आयोजन किया जाता है।
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